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ये तेरी सोच हम सफ़र, गए दिनो से है अलग / पुरुषोत्तम अब्बी "आज़र"

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ये तेरी सोच हम सफ़र, गए दिनों से है अलग
कि वासना कि आग ही ,रहे लहू-लहू सजग

वो कामना कि टीस थी, अधर के नीचे दब गई
वो यात्रा कि आग थी, के उठ के रह गए थे पग

जो वादियाँ थी आज तक ,उजाड़ बन के रह गईं
लगी जो मन में आग थी,वो बुझ गई सुलग-सुलग

वो आदमी जो था यहां, नज़र में अपनी गिर गया
कहीं रही न जिंदगी ,कहीं नहीं रहा वो जग

जो रहनुमा धरम के थे, वे धन के हाथ बिक गए
जो चाहते थे रास्ता , पड़े हैं वे अलग-थलग