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ये दिन मेरे हिस्से के नहीं हैं / इधर कई दिनों से / अनिल पाण्डेय

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जहाँ जाना चाहते हैं
नहीं पहुँच पाते हैं अंत तक वहां
जहाँ नहीं होना चाहते हैं
स्थाई हो उठते हैं आजकल अक्सर

होना तो मेरे बस में नहीं है आखिर
न होना ही नियति हो गयी है
समय सब देखता है कौन किस हाल में है
सिखाता है समय ही
बनकर रहना है किस तरह

अक्सर लोग नाराज हो जाते हैं
भविष्य को छोड़ कर बस आज हो जाते हैं
कल, आज और कल में पड़कर
दिन अक्सर नाराज हो जाते हैं
किससे कहें कि मेरे पास
नाराज होने के अवसर नहीं हैं

सुनो! हो सके तो माफ़ करना
ये दिन मेरे हिस्से के नहीं हैं
जिनके थे वे खेल गये खेल अंत तक
करता कोई है और भरता कोई है
इस बात को भूलना भी समस्या ही है
न भूलना चालाकी तो है
सब चालाकी काफूर हो जाती है
जहाँ अपनत्व के भाव हों