भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ये दुनिया है फ़रेबी, चल सकोगे / विजय 'अरुण'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ये दुनिया है फ़रेबी, चल सकोगे
नए सांचों में पल-पल ढल सकोगे।

बताओ चान्द से ऐ ख़ूबसूरत
ज़मीं पर साथ मेरे चल सकोगे।

रहोगे जो कली बन कर चमन में
तो फिर काँटों में भी तुम पल सकोगे।

उजाला आग दोनों चाहता हूँ
कहो क्या तुम दिए-सा जल सकोगे।

 'अरुण' कहते हो मिट्टी से जुड़े हो
ये मिट्टी अपने मुँह पर मल सकोगे।