Last modified on 31 मार्च 2022, at 15:00

ये धुआँ कहाँ से उठता है? / नामवर सिंह

कैप्टन गिल की 40 कविताओं का यह संकलन "धुआँ" इसी सवाल का जवाब है कि "ये" धुआँ कहाँ से उठता है। संस्कृत की एक उक्ति है - यत्र यत्र धुमः तत्र तत्र वद्दिः - जहाँ जहाँ धुआँ है, वहाँ वहाँ आग है। इस आग का नाम है मजहबी जुनुन। संकलन की आखिरी कविता से पता चलता है कि इन कविताओं का उक्त कवि का अपना अपना अनुभव है जो 1947 में देश के बटवारे के समय उनके पूर्वजों को हुआ था। कवि के ही शब्दों में -

मैं कैसे भूल सकता हूँ
इस धुएं के घाव को
जिसने मेरे घाव को
जिसने मेरे माता-पिता
मेरे भाई-बहन
और ऐसे ही लाखों परिवारों को
चाहे वो सीमा के इस पार हों
या आज रहते हों उस पार
रख दिया था बनाकर घर से बेघर।

यही बात उसके ठीक पहले की कविता में भी है "यह कवि स्वयं भी/अपने जन्म से पहले ही / शिकार हुआ था । धुएँ के बादल का।"

अन्ततः कवि का निष्कर्ष है
इन धुएं के बादलों से ऊपर उठकर
जीना ही जीवन मूल्य होगा।

"धुआँ" कविता संग्रह इसी बाद को तरह-तरह से चालीस छोटी बड़ी कविताओं में कहता है क्योंकि यह "धुआँ" बहुरूपिया है । वैसे तो यह है वस्तुतः "धर्म की श्वास" ही लेकिन प्रकट होता है कई रूपों में। इसलिए उसे पहचानने की जरूरत है। कवि ने इसी दिशा में एक कोशिश की है।

मैं इस काव्यात्मक प्रयास का खुले दिल से स्वागत करता हूँ और कवि को हार्दिक बधाई देता हूँ।

नामवर सिंह
28 मार्च 2011