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ये बादल महज़ दिखावा के / सरोज मिश्र

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ये बादल महज़ दिखावा के, या पानी भी बरसायेंगे!
मौन रहो कह घुड़क रही है!
बिजली सिर पर कड़क रही है!

उद्यानों में रखे गए हैं, फूल कागज़ी ख़ुशबू वाले!
बांट रहे जुगनू मतवाले, जगह-जगह भरपूर उजाले!
असमंजस में बैठी आशा, सोंचे उत्तर कब आएंगे!
आंख दाहिनी फड़क रही है!
बिजली सिर पर कड़क रही है!

घर घर जाले हैं खिड़की पर, पीला आँगन धुँआ दिवारें!
मातम पसरा है बस्ती में, घोर उदासे हैं गलियारे!
उमस बढ़ी है आज शहर में, शाम ढले अंधड़ छायेंगे!
चिंगारी एक भड़क रही है!
बिजली सिर पर कड़क रही है!

कहाँ तो बगुले बांच रहे हैं घाट-घाट संकल्पों को!
वहीं बेचारी मछली खोजे, तल पर खुले विकल्पों को!
सन्निपात जिसदिन भी टूटा, मारेंगें या मर जायेंगे!
नब्ज अभी तक धड़क रही है!
बिजली सिर पर कड़क रही है!