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ये भी ग़ज़ल का मतला है / पुरुषोत्तम 'यक़ीन'
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ये भी ग़ज़ल का मतला है
जग में हर सू घपला है
पानी बरसा सहरा में
मौसम यूँ भी बदला है
सुर्ख़ी है अख़बार की ये
नेताजी को नज़ला है
अपने घर की खैर मना
जो चमके है, चपला है
इतिहासों में कुछ होगी
अब तो नारी अबला है
कमलेश्वर की मौज लगी
धंधे वाली कमला है
हरियाला है अपना घर
अपने घर भी गमला है
मुश्किल है अपनी भाई
अपना स्तर मझला है
सच तो ये है आज 'यक़ीन'
हाले-दिल पतला है