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रंग बदलता समाज / संजय मिश्रा 'शौक'
Kavita Kosh से
समाज को आइना दिखाने की एक कोशिश
का नाम कविता है ये सुना था
मगर जो मैं देखता हू वो तो उलट है इससे
समाज तो आईने के सच को नकारने की
तमाम कोशिश किये हुए है
वो आईने के तो सामने है
मगर वो आँखों को बंद करके
फ़रेबकारी में मुतमईन है!
ये कैसी दुनिया है जिसमें
कोई किसी से भी मुत्तफिक नहीं है
ये दौरे हाजिर की जर-परस्ती
हर इक गलत को सहीह साबित करेगी कब तक?
मगर ये आँखें जो देखती हैं वो भी तो सच है
यहाँ पे दौलत के आगे हमने
सलाहियत को तमाम इल्मो-हुनर को
सौदागरों से कीमत वसूल करते हुए भी देखा है
क्या करें हम?
ये आईने भी तो अपने सच से हैं कुछ पशेमां
कि अपनी गैरत की फिक्र
करता नहीं है कोई ?
इसीलिए तो जो सच है यारों
जो कुछ भी अच्छा है इस जमीं पर
वही गलत है!!!