रंग में भंग / प्रेम प्रगास / धरनीदास
चौपाई:-
कहत सुनत राजन सुधि पाई। एक अनीथ कतहुं ते आई॥
तासो नृपति विवाह विचारा। हम सबहीं कंह कहत गंवारा॥
राजकुंअर सब एक मत भयऊ। इहै वचन चित हिकर ठयऊ॥
जो योगी सन करहि सगाई। तो हम सब मिलि करहिं लड़ाई॥
जो वाही पर वेशी भाऊ। किमि कारण हम सबहिं बुलाऊ॥
अब हम देखत योगि वियाही। मरन भला यह जीवन चाही॥
विश्राम:-
राजा वर कन्या सहित, मारब हांकि प्रचारि।
अत सब कुंअरन आछते, योगी वरहि कुमारि॥179॥
चौपाई:-
सब कुंअरन मिलि रची अंदेशा। ध्यानदेव पंह पठव संदेशा॥
जो कछु राजरीति चलि आई। सो तजि अवर करै कस राई॥
चन्द्र वदनि धनि नवल कुमारी। राज छाडि कस देहु भिखारी॥
इतना राजकुंअर सब आहीं। वुधि आगर नागर तव पाहीं॥
जो वरवस करिहौ अस राजा। अगुमन वात कहत हों राजा॥
विश्राम:-
मारब मरब लरब हम, अवशाहिं करब अकाज।
जो ऐसन प्रण परिहरो, तौ यहि भेगों राज॥180॥
चौपाई:-
सब कुंअरन मिलि विप्र पठावा। सो चलि राजदुवारे आवा॥
राव निकट ह्वै वैठयो जाई। कुँअरन को मति कहु समुझाई॥
सुनत वचन थहरान्यो राऊ। अब का कह कछु वकति वन आऊ॥
उठि राजा जनवासे आऊ। सव राजन से कहु सतभाऊ॥
हमहि दोष जनि देहु गोसाई। सुनो कहों विरतंत वुझाई॥
विश्राम:-
सुनो हमारी वीनती, वचन करो परमान।
सो टारे ट िहै नहीं, जो करिहै भगवान॥181॥
चौपाई:-
पूछयो कुंअरि गौरि शिव दोऊ। तुम वर देहु करों पति सोऊ॥
वरिस पांच निशि दिन मन लावा। तव गौरी शिव वर दरसावा॥
...। यह छल चाटक हमते होई॥
योगी सहित कुंअरि हम मारब। तब आगिल कछु काज विचारब॥
राजपरे गुनावनि मांहा। अगम उदधि जल पाव न थाहा॥
विश्राम:-
छोडत वने न राजहीं, करत वने नहिं काज।
विषधर गहे छछूंदरी, उगिलत वने न खात॥172॥
चौपाई:-
दंड चारि नृप रहे ठगाई। पुनि गृह चलिमे चित विलखाई॥
जो विधना विधिय इहै वनाई। तौ नर करे कवन चतुराई॥
राजा दुखित तेवरी आई। जंह पट सो पलंग विछाई॥
ता क्षण पलंग रही नहिं ता घर। तो लरखरी परे पुहुमी पर॥
सुधि समाज ना एको रहैऊ। कारो आई करेजा गेह गहेऊ॥
विश्राम:-
रानी जाय जगावहीं, औ जत कुल परिवार।
जौ सुख वादर भीतरे, वरिसत दुख जलधार॥183॥
चौपाई:-
सुधि भैगो सव अन्तर वासा। कुंअर कुंअर परिजन परकासा॥
जो जैहवां सो तंह अकुलाना। चिन्ता के घर प्राण लुकाना॥
गीति नाद गावै नहिं कोई। वाजन शब्द भवन नहि होई॥
वन्दी जन नहि फिरै दुवारा। ठाम ठाम सव सैन निवारा॥
नर नारी कत करहिं असीसा। पूरन यज्ञ करो जगदीशा॥
विश्राम:-
जो जंह रहु सो तंहवई, शिर धूनै पछिताव।
तृषावंत सरवर तटहिं, जल अंचवन नहि पाव॥184॥