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रक्त रंजित चरन मेरे / विद्याधर द्विवेदी 'विज्ञ'

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रक्त-रंजित चरन मेरे पर न हारे।

दूर निर्जन घाटियों में ढल चुके अनुमान मेरे
उड़ रहे तमसी गुहा में गीत के अभियान मेरे
किंतु कोई सुन न पाता व्योम से फिर आ रहे स्वर
प्राण में मुस्का न पाते ज्योति के वरदान मेरे

बढ़ रही है राह काँटों के सहारे।
रक्त-रंजित चरन मेरे पर न हारे।

आज मेरे आंसुओं में शिशिर की गति पल रही है
प्राण के सूने क्षितिज में जेठ की लू चल रही है
प्रलय की बोझिल शिला पर साँस केवल रागिनी जब
स्वप्न के जल-जात जैसी एक छाया छल रही है

कह रही है – “लौट जा रे, लौट जा रे”!
रक्त-रंजित चरन मेरे पर न हारे।

अनल के तूफान में भी भूख का अभ्यास बाकी
मिट न पाती है क्षुधा पर ज़िंदगी की आस बाकी
सुन रहा हूँ धार के स्वर पग उतरना चाहते हैं
क्योंकि सूने कंठ में तलवार जैसी प्यास बाकी

किंतु टूटे जा रहे नद के किनारे।
रक्त-रंजित चरन मेरे पर न हारे।