भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रक्तपिपासा / मदन कश्यप

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हां वह एक स्‍वप्‍न ही था. भयानक और
डरावना. रेत का एक महासागर
कितनी खौफनाक थीं उसकी लहरें

मैं रेत के भंवर में फंस-फंसकर जाने कैसे
बचता जा रहा था. प्‍यासा था और तत्‍काल
बच निकलने की युक्ति के बजाय यह सोच
रहा था कि पानी कहां से मिले
कहीं दूर बमों के फटने और विमानों के उड़ने
की आवाजें सुनाई दे रही थीं लेकिन
आस-पास और कुछ नहीं था सिवा बालू के


बालू का ज्‍वार-भाटा, बालू के चक्रवात
बालू की हवा, बालू के बादल. लगता था
मैं स्‍वयं भी और कुछ नहीं बालू का एक
पुतला भर हूं. मगर, प्‍यास लगी थी

सहसा एक मशक दिखी. चमड़े की थैली

जिसमें पुराने जमाने के लोग पानी लेकर चलते थे
रेगिस्‍तान में. पानी ! इसमें जरूर होगा पानी
मेरे लिए ही तो कोई छोड़ गया होगा इसे
पानी से लबालब भरा हुआ ! मैं दौड़ पड़ा कि
पीऊंगा हजारों वर्ष पहले अपनी ही
किसी पुरखे द्वारा रख छोड़ा गया पानी

अरे, इसमें तो खून ही खून है और
कटा हुआ सिर! यह तो फारस के शहंशाह

कुरूश (साइरस) का सिर है. तो क्‍या
ढाई हजार वर्षों में भी बुझी नहीं उसकी रिक्‍तपिपासा!