भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रक्शिन्दा ज़ोया से / हबीब जालिब
Kavita Kosh से
कह नहीं सकती पर कहती है
मुझसे मेरी नन्ही बच्ची
अब्बू घर चल
अब्बू घर चल
उस की समझ में कुछ नहीं आता
क्यों ज़िन्दाँ में रह जाता हूँ
क्यों नहीं साथ में उसके चलता
कैसे नन्ही समझाऊँ
घर भी तो ज़िन्दाँ की तरह है ।