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रखते हैं मेरे अश्त से ये दीदा-ए-तर फ़ैज़ / मह लक़ा 'चंदा'

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रखते हैं मेरे अश्त से ये दीदा-ए-तर फ़ैज़
दामन में लिया आपने है दरिया ने गोहर फ़ैज

पुर-नूर अजब क्या है करे मुझ को करम से
रखती है दो आलम पे तेरी एक नज़र फै़ज़

इक जाम पे बख़्शे है यहाँ रूतबा जिस्म को
किस की निगह-ए-मस्त से रखता है ख़ुमर फ़ैज़

महरूम नहीं कोई तेरे ख़्वान-ए-करम से
है हस्त्र ख़ुदाई का ही तुझ पे मगर फै़ज़

‘चंदा’ रहे परवत से तेरे या अली रौशन
ख़ुर्शीद को है दर से तेरे शाम ओ सहर फै़ज