नैतिकता ईमान से, वक़्त गया है रूठ।
सनद माँगता सत्य से, कुर्सी चढ़ कर झूठ॥
लगते हैं सद्भाव को, अनगिन गहरे घाव।
होते हैं इस देश में, जब-जब कहीं चुनाव॥
किसकी हिम्मत मोड़ता, सरकारी फरमान?
सूरज से ज़्यादा हुआ, जुगनू का सम्मान॥
कैसे रहे समाज में, अमन चैन सद्भाव।
कोई तन को दे रहा, कोई मन को घाव॥
कहाँ रहेंगी मछलियाँ, सबसे बड़ा सवाल।
घडियालों ने कर लिए, कब्ज़े में सब ताल॥
पूछ रहे हैं गाँव के, खेत मेंढ़ खलिहान।
कैसे जीवित रख लिया, अब तक भी ईमान॥
किसे फ़िक्र है देश की, कौन करेगा त्याग?
कहीं पेट की भूख है, कहीं हवस की आग॥
बुलबुल ने आकाश में, जब-जब भारी उड़ान।
बाजों ने प्रतिबन्ध के, सुना दिए फरमान॥
राजनीति के अश्व पर, बौने हुए सवार।
घास छीलते फिर रहे, शिखरों के हक़दार॥
फैला सभ्य समाज में, जाने कैसा रोग।
आहत करके और को, ख़ुशी खोजते लोग॥
खूब किया सय्याद ने, बुलबुल पर उपकार।
पंख काटकर दे दिया, उड़ने का अधिकार॥
है रिश्वत के सामने, बेबस अभी विधान।
गाँव लूटकर खा गए, मुखिया, पंच, प्रधान॥
हिम्मत टूटी हंस की, डोल गया विश्वास।
काग मिले जब मंच पर, पहने धवल लिबास॥
सपनों पर भी हो गई, ओलों की बरसात।
मौसम बरसा दो घडी, अँखियाँ सारी रात॥
सुनकर तर्क वकील के, न्याय हुआ लाचार।
कातिल को फिर मिल गया, जीने का अधिकार॥
रोटी भूखे पेट को, तन को मिले लिबास।
केवल इतनी भूख है, आमजनों के पास॥
पीट रहे हैं लीक को, नहीं समझाते मर्म।
आडम्बर को कह रहे, कुछ नालायक धर्म॥
गलत-सही का फैसला, अगर करेगी भीड़।
भाईचारा छोडिये, नहीं बचेंगे नीड़॥
रिश्वत बोली झूठ से, सुनले करके गौर।
कलियुग के इस दौर के, हम दोनों सिरमौर॥
गिरवी दिनकर की कलम, पढ़ें कसीदे मीर।
सुख सुविधा कि हाट में, बिकते रोज कबीर॥