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रघुविन्द्र यादव के दोहे-6 / रघुविन्द्र यादव

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सत्य कहे यारी गई, स्पष्ट कहे सम्बन्ध।
अब तो केवल रह गए, स्वारथ के अनुबंध॥

झूठों के दरबार हैं, सच पर हैं इल्ज़ाम।
कैसे होगा न्याय अब, बोलो मेरे राम॥

सुनते आये हैं सदा, होती सच की जीत।
झूठ मगर निर्भय यहाँ, सत्य फिरे भयभीत॥

कनक हुई जब खेत में, दो कौड़ी था मोल।
लाला के गोदाम से, बिकी कनक के तोल॥

कहीं शिकारी तानते, उस पर तीर कमान।
कहीं भेड़िये घात में, हिरनी है अनजान॥

संसद में होती रही, महिला हित की बात।
थाने में लुटती रही, इज्ज़त सारी रात॥

नारी को समझा सदा, मर्द जाति ने दास।
ताड़न की अधिकारिणी, कहते तुलसीदास॥

रामराज की कल्पना, करती है भयभीत।
भूली कब है जानकी, अपना दुखद अतीत॥

विधवा होते ही हुए, सब दरवाजे बंद।
आँखों का भी नींद से, टूट गया अनुबंध॥

नारी पूजक देश में, नारी है लाचार।
हत्या, शोषण, अपहरण, भरे पड़े अखबार॥

नयी सदी से मिल रही, दर्द भरी सौगात।
बेटा कहता बाप से, तेरी क्या औकात॥

रिश्तों को यूँ तोड़ते, जैसे कच्चा सूत।
बँटवारा माँ बाप का, करने लगे कपूत॥

अब तो अपना खून भी, करने लगा कमाल।
बोझ समझ माँ बाप को, घर से रहा निकाल॥

पानी आँखों का मरा, मरी शर्म औ' लाज।
कहे बहू अब सास से, घर में मेरा राज॥

सास ससुर लाचार हैं, बहू न पूछे हाल।
देते में 'सेवा' करे, बाबा हुआ निहाल॥

खंज़र रखकर जेब में, करें अमन की बात।
होठों पर मुस्कान है, भीतर मन में घात॥

मंदिर में पूजा करें, घर में करें कलेश।
बापू तो बोझा लगे, पत्थर लगें गणेश॥

बचे कहाँ अब शेष हैं, दया, धर्म, ईमान।
पत्थर के भगवान् हैं, पत्थर दिल इंसान॥

पत्थर के भगवान् को, लगते छप्पन भोग।
मर जाते फुटपाथ पर, भूखे प्यासे लोग॥

धर्म कर्म की आड़ ले, करते हैं व्यापार।
फोटो, माला, पुस्तकें, बेचें बंदनवार॥