भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रचा हुआ है वही तुम्हारा... / स्वाति मेलकानी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुमने रचना की थी
हर उस पल की
जो था साथ हमारे,
तब भी
जब हम साथ नही थे।
यही दृष्टि थी मेरी
और वह दृश्य
तुम्हारा ही था
जिसने मन में जाकर
मन की रचना बदली।
अब यह नया
सजल मन मेरा
रचा हुआ है वही तुम्हारा...
एक शाम थी,
ढलते सूरज के प्रकाश में
चमचम करती,
तुमने गीत करूण जो गाया
झटपट रात बनी
वह चल दी।
हाँ, वह गीत तुम्हारा ही था
जिसने खोले द्वाररात के
कमरे में तारे भर आए,
टिमटिम करते और काँपते
सारे तारे
रचे हुए हैं वही तुम्हारे...
याद करो पानी के कंपन
पेाखर के पत्थर पर चढ़कर
जब तुमनेदेखी थीझुककर
अपनी छाया।
और हवा
जो बिखर गई थी टुकड़े होकर
जब भी तुमने मुझे पुकारा
आगन की चिड़ियों से कहकर।
तुम कहते हो,’’मेरी रचनाएँ लौटा दो।’’
कैसे दे दूँ हवा के टुकड़े
और
सजल मन
कैसे दे दूँ डरते तारे
कैसे दूँ पानी के कंपन।
पहाड़ खड़े हैं

पहाड़ खड़े हैै
नहीं देते कोई मौका
समझने समझाने का
कि क्या चल रहा है
उनके भीतर...
पर
कभी-कभी
फट पड़ते हैं ज्वालामुखी
जो सुलग रहे थे
जाने कब से।
धुँए और लावे के साथ
बहते पहाड़ के टुकड़ो में
दिखाई देता है वह सब
जिसने उसे
पहाड़ बनाया
गीली मिट्टी
तपती रेत
नुकीले पत्थर
चूना,
चट्टान
आग
और पानी
जिसमें उठते सैकड़ों ज्वार
दब जाते थे बार-बार
और
इस सबके बीच
पहाड़ खड़े हैं।