भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रचिएक चानन लिखलौ मे कोहबर / अंगिका लोकगीत

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

   ♦   रचनाकार: अज्ञात

सजे-सजाये कोहबर में दुलहे-दुलहिन में कुछ विवाद हुआ। दुलहिन रूठ गई। दुलहे ने अपनी सलहज को बुलाया। सलहज ने अपनी ननद को समझाते हुए पान का बीड़ा लगाने को कहा। ननद ने उत्तर दिया- ‘भाभी, पुरुष जाति स्वार्थी होती है। इस पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिए। ये पुरुष हँसते हुए भी विरह की विष-भरी बातेॅ कहते हैं। मुझसे यह संभव नहीं।’ सलहज ने दुलहे से मजाक करते हुए और ननद को सांत्वना देते हुए कहा- ‘इसके कुल-खानदान का ठिकाना नहीं और उलटे मेरी ननद की शिकायत करके अपमानित करता है। तुमने गंगा में स्नान करके सूर्य भगवान की प्रार्थना की थी, जिससे ऐसी सुघर पत्नी मिली है।’
सलहज अपनी ननद के साथ साथ ननदोई से भी मजाक कर सकती है। उसने बहुत ही चातुरी से मजाक भी किया और ननद की बड़ाई करके उसके तनाव को भी कम करने की कोशिश की।

रचिएक<ref>रच-रचकर</ref> चानन लिखलौ में कोहबर, लिखलौं में सगरियो<ref>संपूर्ण, समूचे</ref> राति हे।
ओहि माये<ref>में</ref> निज सासु पलँग बिछाबल, लिअ बाबू सीतल बतास हे॥1॥
किनकर बनाओल येहो रे बसहर घर<ref>बाँस का बना घर; मंडप; कोहबर</ref>; किनकर घोरायल<ref>बुना गया</ref> लबी<ref>नया</ref> खाट हे।
कौनी दरप तोहें खाट चढ़ि बैठली कामिनी, भुइयाँ लोटै नामी<ref>लंबा</ref> केस हे॥2॥
अँगना बोढ़ैते<ref>बुहारते हुए</ref> तोहें सलखी गे चेरिया, सरहोजि आनु<ref>लाओ</ref> न बोलाय हे।
आबु आबु सरहोजि बैठहो पलँग चढ़ि, देखि लिअ ननद बेवहार हे॥3॥
उठु उठु ननदो हे हमरो बचनियाँ, उठि कै पनमा लगाब हे।
भल नहिं बोलली तहुँ जेठ भौजो, बोलिआ बोलै अनुराग हे॥4॥
पुरुस् के जात अपन नहिं होय, हँसी हँसी बिरहा चढ़ाबै हे।
उढ़री<ref>वह औरत, जो किसी दूसरे पुरुष के साथ घर से चुपके से भाग गई हो</ref> के भैया छिनारी के बेटा, दूसल<ref>दोष लगाना; कलंकित करना</ref> ननद बेबहार हे।
गँगा नहाबल सुरुज गोर लागल पाओल ननदी हमार हे॥5॥

शब्दार्थ
<references/>