रण-रस / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
आइ नहि बंसीक सुरमे अपन कंठक धुनि सजायब
आइ नहि वीणाक लयमे सरस स्वर निर्झर मिलायब
आइ पूपुर पहिरि नाचय जैब नहि बनि नृत्य - बाला
आइ रसिकक हृदय दोला झुलव नहि भय कुसुम माला
आइ क्रौंची जखन क्रन्दन करय उर विह्वल अधीरे
व्याध वाणक लक्ष्य बनले प्रिय जकर तमसाक तीरे
अग्नि-वीणा लय एखन कवि जाय दी दु्रतपदेँ हमरा
श्लोक परिणत होय जहिसँ शोक-धुनि से उठय लहरा
जनस्थान मसान बनइछ, अगस्त्यक दिग्देश दडित
आइ खर-दूषण क दोषेँ पुनि पवित्र अरण्य खडित
दृप्त सूर्पनखा नचै अछि विश्व वन बिच सुन्दरी बनि
कत कबध प्रबंधमे अछि तपोवन उपटैब मन गुनि
ब्रह्मकुलहुक शैवदलहुक व्यक्ति शक्तिक दुरुपयोगी
ज्ञान हत विज्ञान बाधित दनुज मनुजक रक्त भोगी
यज्ञ बनइछ अज्ञ संज्ञक, तपक पुनि संताप नामे
अर्थ काम सदर्थ, लुंठित धर्म मोक्ष अनर्थ - धामे
धनुष्कोटिक प्रणय पणकेर वणिक सागर पार कय यदि
जुटि जुमय दशमुख विमुख धरतीसुताकेर न्यार कय यदि
तखन कोनहु वीर्यवानक लोकमे अन्वेषणाहित
आदिकवि कौशिकक हाथेँ करथु अभिनव योजनान्वित
नहि प्रणय पण परिणयक नृपनयक थिक ई रूप रेखा
असुर उद्वासनक हित वनवास पूर्वहिँ रचित लेखा
मैथिली हरणार्थ प्रस्तुत कपट कंचुक हरिण कंचन
किन्तु मायावीक कथमपि चलि न सकतै आइ वंचन
लक्ष्मणक रेखा विपुबकेँ टपि सकत नहि छùवेषा
आइ सीताकेँ सजग कय रचब अभिनव कथा रेखा
कोशिकक उत्तर कुटी पुनि ज्वलित गैरिक अग्निवर्णा
दक्षिणा पथ अगस्त्याश्रम शस्त्र-शास्त्र प्रशस्त पूर्णा
शास्त्रहुक संस्कार तखनहि जखन अस्त्रक झनत्कारे
शान्तिहुक सत्कार तखनहि प्रतीकारक चमत्कारे
अनल आहुति सहित रस-आहूति युगपद संचिता हो
मनुक अनुशासन, धनुक ध्वनि मुनि मनुज मन अंचिता हो।
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आदिकवि केर कंठ बसि दशवदन वध हित राम वजबी
आइ रामायणक रण-रस कुश लवक गर सजग सजबी