रफूगर / अनुराधा सिंह
एक खौंचा सिया
कि छोटी पड़ गयी ज़िन्दगी
बड़े महँगे हो रफूगर तुम
ये क्या कि मरम्मत के वक़्त काट छाँट देते हो
कैसे जिया जायेगा इतने कम में
उसने नज़र उठाई वह भी बेज़ार
सुई की नोक भी
निशाने पर मेरी आँख, बेझप
कौन है तू?
मैंने चूम लीं उसकी उंगलियाँ
और उन उँगलियों की हिकारत
फुसफुसाई कान की लौ पर, वक़्त थरथराया
तुम आलीपनाह
मेरा नाम कुछ भी हो सकता है
जैसे नाचीज़
और अब अगर जान लिया है मेरा नाम
तो रफू करो मेरा सब फटा उधड़ा
मिला दो मेरी चिंदी चिंदी
जोड़ दो यह चाक जो बढ़ता ही जा रहा है हर घड़ी
नहीं भरता यह ज़ख्म कोई वक़्त मरहम
लो सिलो पूरी दयानतदारी
थोड़ी फिजूलखर्ची से
कि अब भी सलामत है मेरी फटी जेब चाक गरेबां
खस्ता आस्तीन
सिलो कि सलामत रहें तुम्हारी उँगलियाँ
उनकी हिक़ारत