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रवि दग्ध है तपती धरा / अनामिका सिंह 'अना'

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रवि दग्ध है तपती धरा, खग वृन्द प्यासे हैं विकल।
तृण-तृण तृषित हो जल रहा, अदृश्य हैं मृदु स्रोत जल॥

हैं रिक्त सर सरि बावड़ी, हत अश्रुपूरित झील हैं।
थाती धरा की कह रही, ठोंकी मनुज ने कील हैं॥
सक्षम यहाँ जो दिख रहा, निज सोच से वह दरिद्र हैं।
दोहन किया अति नीर का, छाती में अनगिन छिद्र हैं॥
नित भग्न मुझको कर रहे, कुकृत्य मानव के सकल।
रवि दग्ध है तपती धरा, खग वृन्द प्यासे हैं विकल॥

जल सृष्टि के है मूल में, जल जीव का आधार है।
हर श्वास की लय-ताल यह, जल ही जगत का सार है॥
इस तथ्य से परिचित सभी, क्यों कर रहे नित भूल हैं।
सीना धरा दो फाड़ है, सिसकें तरी के कूल हैं॥
अब रंच समय है शेष कब, अति शीघ्र ढूँढें आप हल।
रवि दग्ध है जलती धरा, खग वृन्द प्यासे हैं विकल॥

प्यासे विहग दम घुट रहा, रख दे सकोरा नीर का।
हों नेकियाँ तुझसे मनुज, संज्ञान ले कुछ पीर का॥
कुछ रोंप दे तरु कोंपलें, धरती बिहूनी हो रही।
तरु से सुहागन है धरा, क्यों माँग सूनी हो रही॥
मत चूर हो मद में मनुज, नत कह रही है जा सँभल।
रवि दग्ध है तपती धरा, खग वृन्द प्यासे हैं विकल॥