रसूल का गाँव / अनामिका अनु
रसूल के गाँव की समतल छत पर
बैठी चिड़िया
कभी-कभी भोर के कानों में
अवार में मिट्टी कह जाती है
शोरग़ुल के बीच
सिर्फ़ दो शब्द नसीहतों के
कह जाते हैं रसूल, कानों में
मास्को की गलियों में उपले छपी दीवारें नहीं है
कहते थे रसूल के अब्बा
आँखों में रौशनी की पुड़िया खोलती त्साता गाँव की लड़कियाँ
आज भी आती होंगी माथे पर जाड़न की गठरी लेकर
और सर्द पहाड़ियों पर कविता जन्म लेती होगी
रसूल क्या आपके गाँव में
अब भी वादियाँ हरी और घर पाषाणी हैं?
कल ही की बात हो जैसे
सिगरेट सुलगाते रसूल कहते हैं,
अपनी ज़बान और मेहमान को हिक़ारत से मत देखना
वरना बादल बिजली गिरेंगे हम पर, तुम पर, सब पर
मैं रसूल हमज़ातोव
आज भी दिल के दरवाज़े पर दस्तक देता हूँ खट-खट
मांस और बूज़ा परोसने का समय हो गया है उठ जाओ
मैं अंदर आऊँ या मेरे बिना ही तुम्हारा काम चल जाएगा