भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रहती थी यहाँ कुछ कविताएँ / रवीन्द्र दास

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रहती थी यहाँ कुछ कविताएँ
वैसे ही , जैसे रहती थी दादी की कहानियों में परियाँ
पिछवाड़े वाले कुएँ में
और सच्चे-ईमानदार लोगों के लिए जुटाती थी सुख के सामान
वही परियाँ सज़ा भी देती थी
लालची और मक्कार लोगों को।

कहानी की परियाँ
जिन्हें हमने कभी देखा नही
लेकिन महसूस किया है बहुत बार
अपनी दादी के निश्छल आगोश में
नासमझ कल्लू के लिए स्वादिष्ट पकवान लाती हुई
कल्लू की उस सूखी रोटियों के बदले ।

उन्हीं परियों की मानिंद कविताएँ
हमारे मानवीय सरोकारों भूखी है बेहद
कभी जब आप बैठेंगे सुस्ताने को
किसी पेड़ के नीचे या कुएँ की जगत पर
आ जाएँगी परियाँ
कविताओं की शक्ल लिये
गोया आपको न भाये उनका रूप
हो गईं हैं पीली और कमज़ोर
स्नेहिल स्पर्श के अभाव में
बिलखती रहती हैं दिन-रात,
नहीं पहचानी जाती है उनकी शक्ल
तभी तो चल पड़ा है कहने का रिवाज़
कि रहती थीं यहाँ कुछ कविताएँ
वैसे ही जैसे रहती थी जलपरियाँ दादी की कहानियों में।