भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रहने दो, चाप चढ़ाओ मत / रामगोपाल 'रुद्र'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अधरों पर लोट रही रसना
तट पर लघु रोहित नीरमना!
अनुराग-सजल-पट पर छटपट
जलधरबसना बिजलीदशना!

आधा ही जाम दिया तुमने
क्या ज़ालिम काम किया तुमने!
रह भी न सके, कह भी न सके;
अच्छा बदनाम किया तुमने!

रहने दो, चाप चढ़ाओ मत;
तारों पर तीर चलाओ मत;
यह दाग? यहीं था चाँद कभी;
इसको अब चाँद बनाओ मत!

भौरों के होंठ लगाओ मत;
प्यालों को व्यर्थ लजाओ मत!
तलछट-भर शेष यहाँ, साकी!
प्राणों की प्यास बढ़ाओ मत!

क्यों पोंछ रहे मुँह पल्लव का
मिट जाय तरस मधु-आसव का?
बढ़ जाय कहीं कुछ और न लौ
अलि! खेल नहीं बुझना दव का!