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रहस्य / पूजा प्रियम्वदा

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मेरी वर्दी वैसी ही है
और मेरी डिग्रियाँ, जैसे आमतौर पर
एक कतार में लकड़ी के फ्रेमों में
अधिकतर से बेहतर, वो कहते हैं --
बेहतरीन बनते हैं शल्य-चिकित्सक
मैं आज तक जिया हूँ
कार्यवाही के आम नियमों के पालन की तरह
 
लोगों को देखने से पहले
मैं जिस्मों को देखता था ढाँचों की तरह
मुझे वही समझ आता
समरूपता और संतुलन
मूलतत्व की बातें सिर्फ कवि करते हैं

फिर भी एक ढाँचे में क़ैद
जो नहीं था नियमानुसार
मेरा जिस्म और मेरी टांग
नहीं थे कायदे जैसे
किसे ज़रूरत थी ठीक होने की?
मुझे या मेरे आस-पास को ?
 
मुझे अक्सर लगता
ये नहीं थी कोई सलीब
मेरा कृत्रिम अंग
नहीं था सिर्फ था एक सहारा
बल्कि भविष्य में जो होना था
उसका विस्तार
 
मैंने इसे बना लिया एक उपकरण
सिर्फ चलने के लिए ही नहीं
मुझे नहीं चाहिए था सहारा
खड़े होने या अलग खड़े होने में
मैंने इसे बनाया एक लेंस
जिससे मैं देख सकूँ दर्द
लोगों को देख सकूँ करीब से
सिर्फ संख्याओं की तरह नहीं
 
अगर कभी लम्बे ऑपेरशनों में
बैठता हूँ, ये कम होता है थकान से
अधिक इस अविश्वास से
कि अब जाके मैं देख पाया हूँ लोगों को
सिर्फ उनके जिस्मों को नहीं
जैसे मैंने सीखा अपने जिस्म को देखना
और मैं प्रणाम करता हूँ
इस रहस्य को
इस हृदयग्राही विविधता को