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रहस्यमय रात / मृत्युंजय कुमार सिंह

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विचित्र एक धुंध में सनी है ये रात
जैसे अधरों पर अँटकी हुई कोई बात

वनस्पति सब सर उठाये
किन्तु अपने शरीर की
शाख, पत्ते झुकाए,
सड़क पर मुंह फाड़ रोता कुत्ता
कल ही उगा विषैला
एक कुकुरमुत्ता

अशुभ के रेंगने से
चमक कर
हिनहिनाते सत्ता के घोड़े
अस्तबल में बँधे,
भाग नहीं सकते
कौन किसका मुंह किधर मोड़े

कुंहरते, करवट बदलते पक्षी
किसी षड्यंत्र के साक्षी
गुमसुम कंठ से कह रहे हैं
(या रो रहे हैं?)
सब ठीक है, सब ठीक है!
शायद आगे कोई टूटी लीक है!
टाइम-बम है कोई,
या लैंड-माईन?

बन्दूक लिए एक क्रांतिकारी पट्ठा
प्रतीक्षा में है हिंसा का एक जत्था

कि तभी केंचुल
छोड़कर एक तक्षक
चमकता लिजलिजे मुँह वाला
रक्षक
बन निकल आया है सड़कों पर
वह अर्जुनों को काट नहीं पायेगा
किन्तु मरेंगे परीक्षित सब;

ये रात कदाचित जानती है
तभी मुँह से वाष्प उड़ा
हवाओं में उड़ते
विषैले खनिज का टोकरा
उलट दिया है इसने
चाँद से विसरित भुसभुसे उजाले पर -
कटे घाव पर जैसे नमक।

तन्द्रा में लीन
बेहोशी की बीन
पर नाच रहा नाहक, मानव
न घाव की पीड़ा समझता है
ना ही नमक से जनित परपराहट,
हर आगत से उदासीन
सुनता नहीं कोई आहट।
विचित्र एक धुंध में सनी है ये रात!!