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रहे मन वही उत्सवी / कुमार रवींद्र

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चेहरा बदला
किंतु रहे मन वही उत्सवी
           सखी, हमारे
 
हमने बाँची हैं कविताएँ
कितनी ही उगते सूरज की
ग़ज़लें लिखीं रात पूनो की
कनखी के मीठे अचरज की
 
किसिम-किसिम की
ऋतुएँ साधीं
देह-राग के बोल उचारे
 
झुर्री-झुर्री गलों पर
उग आये हैं मकड़ी के जाले
रहीं हमारी साँसें देतीं
इन्द्रधनुष के किंतु हवाले
 
नेह-कुंड
भीतर के हमने
होने दिये नहीं हैं खारे
 
पतझर में भी रहें फागुनी
प्रभु से, सजनी, यही प्रार्थना
 
बसा हुआ जो देवा अंदर
होने पावे नहीं अनमना
 
एक नया
सूर्योदय होवें
जब पहुँचे हम चिता-दुआरे