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रहो सावधान / कुमार सुरेश
Kavita Kosh से
वेश एक-सा
वस्त्र समान
बोली एक-सी
रहना एक साथ
पहला प्रकाश
दूसरा निविड़ अंधकार
सूझती नहीं जिसमें
मनुष्य को मनुष्य की जात
पहला दिशाबोधक संकेत
दूसरा सर्वग्रासी दलदल
जिसमें धँस जाता है
कर्ण का भी रथ
मृत्यु ही मुक्त कर पाती है तब
पहला अन्न ब्रह्म
दूसरा सारे खेत को
चौपट करता हुआ विषैला बीज
पहला झुकता है
दूसरा झुकाता है
पहला स्वीकारता है
दूसरा शिकायत करता है
आत्मसम्मान
स्वयं की निजता का संरक्षक
अहंकार दूसरे की निजता का
अतिक्रमण
सावधान मनु !
परखो ध्यान से
ठिठको वहाँ
जहाँ ख़त्म हो सीमा
आत्म-सम्मान की
आरम्भ होती हो जहाँ
भूमि अहंकार की
यही कसौटी है
मनुष्यता या पशुता की ओर
यात्रा की