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राग-विराग / बुद्ध-बोध / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’

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हाट - बजारक चहल - पहल देखल कत दृश्य ललाम
क्रीडा - कौतुक कला - कलापक नव - नव रस अभिराम
लोकारण्यक कोलाहल बिच पिक - मयूरकेर बोल
संगहि सुनल करुण कुररीदल व्यथा - वलित रव घोल।।12।।
जतय नृत्य - संगीतक रुनझुन, क्रन्दन ततहि अमन्द
जतहि यौवनक बहय तरगिनि ततहि जरा निष्पन्द
सुख तरंगकेर राम - बहारहु, समदाउनिहु उदास
सुखक ज्योतिरिंगण चमकौ छन, दुख तम सघन अकास।।13।।
राजकुमरकेर कान पड़ल रोगी सहसा कुहरैत
देखल पुनि थरथर कँपइत जर्जर क्यौ वृद्ध कँपैत
बढ़ला किछु आगाँ तँ दृष्टि पड़ल, शव कान्ह उठाय
गंगा - नारायण कहइत समसानक दिस कत जाय।।14।।
जरा, रोग ओ मृत्यु ग्रस्त ई जगत दुःखमय अंत
सहसा बोध पाबि घुरि चलला कुमर सचिन्त तुरंत
दिनभरि किछु सोचइत उन्मन पुनि उचटि गेल छल चित्त
पुर-जनपद वन-उपवन सगरो श्रव्य - दृश्य ध्वनि - चित्र।।15।।
सबतरि व्यापित लौकिक सुख - जत दुःख विषय संयोग
नित उद्भव होइछ विनाश हित, क्षणिक जगत उपभोग
‘सर्व दुःखं सर्वं क्षणिकं’ एतबे सत्य सुझाय
राग - भोग आपातमधुर, पुनि परिणत तिक्त - कषाय।।16।।
गाम - नगर वन - उपवन हाट - बाट गत चित उचटैछ
गुनिधुनि करइत कुमर गौतमक मन नहि कतहु रमैछ
पतिक गति - विधिक चिन्तन करइत सती पतिव्रत लीन
यत्नचती पत्नी यशोधरा सेवा कला प्रवीण।।17।।