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रागानल / कविता वाचक्नवी
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रागानल
रागानल
दृग्-परिसर में
भर-भर उमड़ा है,
उखड़ गई
संशय की शूलें
प्रबल वेग से,
शुष्क-तृणों-तल पसरा
हरित-क्रांति का अंकुर
प्राण मधुर
औ’ हास
मधुपूरित
घन-दल-तल।
ऊष्मित मारुत
उमड़ पड़ा है
उमड़े हैं संवेग
वेग से
दीप्त झंझा के।
झोंपड़ में
टप-टप
बरसा है
रागानल
घन बनकर
मुक्ता।
अभिनंदन
अ-काल की
शीतल जलधारा का।