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राज-धर्म / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’

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राजा सिंहासनपर बैसल करइत छला विचार
सहसा सोझाँ प्रगट भेल यमदूत घोर आकार
‘राजन! अहँक राज्य सँ चहिअनि यमकेँ एक जन हन्त!
राजा कहलनि-‘चलू, हमहिँ चलइत छी संग तुरन्त।’
‘मृत्युलोक नहि जाउ अहाँ छथिहे कत प्रजा-समाज
ककरहु पठा देब थिक समुचित सुखेँ करिअ अहँ राज।’
राजा बजला-‘सभ लोकक रक्षाक भार अछि माथ
प्राण अछैत न जाय देब ककरहु हम एना अनाथ।’
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राजा छला देव-मंदिरमे करइत पूजा-पाठ
देवदूत आगाँ आयल, छल दिव्य जनिक सब ठाठ
‘धर्मराज बजबै छथि, सभ चलु राज्य भरिक समुदाय
केवल भावी सृष्टि हेतु क्यौ एक व्यक्ति रहि जाय।’
अछि सुन्दर संवाद आइ सभ जन भोगथु सुख भव्य
हम टा रहइत छी करइत पालन सृष्टिक कर्त्तव्य।’
‘अगणित प्रजा अहँक ककरहु पुनि राखि देव मुद चित्त
उचित किन्तु स्वर्गक सुख छोड़ब अनुचित अहिँक निमित्त।’
देवदूत! सुनु, राज्यक प्राणी मात्रक सुख-कल्याण
अछि निर्भर हमरहिपर, छोड़ब कोना तकर हम ध्यान?’