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राजा घेपंङ / सुदर्शन वशिष्ठ
Kavita Kosh से
तुम
मुँह में छिपा लाए थे जौ
अपनी प्रजा के लिये
नियमित किया वर्षा को
लाया बर्फ
बारिश न हो
इसलिये निकल पड़े घर से।
आज,जब जौ कोई नहीं खाता
प्रजा ने छोड़ दी लाहौल की
बर्फीली भूमि
बदल गया सारा ज़माना
फिर भी सत बचा है
आज भी उठाती है प्रजा तुम्हें
अपने कँधों पर
ले जाती दूर दूर
उत्सव होते तुम्हारे आगमन पर
छंग बाँटी जाती
उधर लोग प्रार्थना करते
राजा घेपंङ वापिस आप
अपने ठिकाने
तुम घर जाओ तो
बारिश गिरे
बर्फ गिरे।