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रात / मधुप मोहता

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तुमने कभी रात की ख़मोशी से बातें की हैं,
उसकी तनहाई का दर्द कभी बांटा है,
जिसके सीने की आंच में तपकर,
रोज़ इक चांद पिघल जाता है।

तुमने देखे है कभी रात के ज़ख़्म,
और देखा है उनसे उठता धुआं।
धुआं, जो अंधेरा बनकर,
रात के दामन से लिपट जाता है।

तुमने सुनी है कभी रात की सिसकी,
उसकी तल्ख़ी को, तड़प को, महसूस किया
जिसकी आंखों से रिसता हुआ ग़म,
ओस की बूंद बन के बिखर जाता है।

तुमने कभी रात की ख़ामोशी से बातें की हैं,
उसकी तनहाई का दर्द कभी बांटा है।