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रात / मृत्युंजय कुमार सिंह
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रात में
रात भी सोती है -
ब्रह्मांड की गुहा में
जहां सन्नाटे की नूपुर ध्वनि से
झनझनाता रहता है अंधकार
समय के स्वेद से
पसीजते शून्य पर भी चमकती है
उसकी मायावी भित्तियां
एक लोरी के लय-सी
हवा भी
स्तब्ध डोलती रहती है, इर्द-गिर्द
अफ़ीम या चरस के नशे में धुत्त
चमचमाते हुए मतों का चाकू लिए
जैसे डोलता हो कोई हत्यारा
अर्धनिमिलित आंखों से
कामातुर लपेट लेती है
चेतना को, और चेतना
पृथ्वी पर के
किसी नदी में तिरोहित,
कांपती रहती है
ख़ून से लथपथ
भोग की उत्तेजना से
रात सत्ता का नैसर्गिक रूप है
हवा उसका चारण
और चेतना
भोग का वह अन्वेषक
बहुधा सत्ता के हाथों जिसका
शील भंग होता है।