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रात काटती प्रहरी -सा / तारा सिंह
Kavita Kosh से
- मेरे नयनों से पीड़ा छलकती, मदिरा -सी
- प्राणों से लिपटी रहती सुरभित चंदन -सी
- वह ज्वाल जिसे छूकर मेरा स्वप्न जला
- लगती सगही – सी , ढाल- ढालकर अंगारे
- पिलाती, कहती संजीवनी है पदमर्दितों की
- उर पर आँसुओं का हार चमकता हीरे सा
- कब दुख आ जाए, जयमाल पहनाने
- रात काटती प्रहरी–सा,दुख तुषार को जगाती मैं
- छलकाकर वेदना अपनी चितवन की
- संध्या के आँसू में घुल जाती अंजन सी
- धरती से अम्बर तक,बिछ जाती मैली चादर-सी
- इन आँखों से देखा नहीं कभी मैंने उन
- चरणों को ,मगर उनकी पदध्वनि है पहचानी सी
- बरसों से धोती आई हूँ मैं, अपने अश्रु - जल से
- मल-मलकर मैं सुख से चंचल,दुख से बोझिल-सी
- रातों को पंथहीन तम में, स्नेह भरा जलता है
- वह , चमकता है दृगों में सितारों- सी
- मल्लिका - मलय , कली तगर गंध
- कभी मेरी राह में बाधा नहीं बनाती
- बल्कि अपने सौरभ गंध प्रवाह को
- विपरीत दिशा में फैलाकर मेरी
- मृत्यु -राह की दिशा निर्देश कराती
- मेरा चिर परिचित सूनापन
- मुझमें ही लय होकर जीता
- मेरी परछाईं से चित्रित
- सजल रोमों को गले लगाए रखता
- सघन वेदना के अंचल में, तम
- मेरी सुधि लेने आता, मेरे
- जीवन नद के दोनों किनारे
- धूल,शूल, व्यंग्यमय फूल खिलाकर
- अमिट चित्र अंकित कर जाता
- विश्व कोहरे में सिमटने चला
- दीखता नहीं दूर तक आगे है क्या
- बस मुझे इतना है मालूम कि
- मेरे दुख का राज्य अनन्त है
- अशेष है निश्चल अम्बर सा