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रात तन्हाई की छत पर कटती रही / हरिवंश प्रभात
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रात तन्हाई की छत पर कटती रही
चाँद अपने झरोखे से झाँकता रहा।
रूप का ले उजाला शशि मोहिनी
जब हवाओं में लिपटा रही चाँदनी
उसको कैसे पुकारूँ और आगोश लूँ
निन्दिया से निकल नेह नाचता रहा।
जल गया है दीया मेरे अरमान का
लगता ऐसा मैं भू का न आसमान का
आज आंचल से कंगन भी बजने लगे
दिल के दरिया का जल बाँध फाँदता रहा।
वे तो होंगे सभी बीच मूरत बने
केश अलसाये होंगे पलंग पर पड़े,
किसका सपना बुलावा मुझे दे रहा
मैं तो उसको उसी से ही माँगता रहा।
मेरा ‘प्रभात’ मुझसे है छीना गया
वक्त बेवक्त खूँ और पसीना बहा
जाने वाले को इतना कहा मान कर
ले उजाले से अंधेरा फाँदता रहा।