रात दवा है रिसते नासुरों की / श्रीनिवास श्रीकांत
रात दवा है रिसते नासुरों की
बस्तियों पर छाई हर तरफ़
जिस पर न कोई ड्रैगन चलता है
न कोई भय कैंचुल छोड़ता है
सीगल उछलती रहती है लक्ष्यहीन
बेदम नहीं होतीं
अदृष्य हाथों की प्रतीक्षा में
अन्दर सील उछलती रहती हैं
लगातार
बाहर अन्धा आकाश
बैठा रहता
अपने ही गिर्द कुण्डली मारे
हवा तालाब के जलमुर्ग सी
हरकत पैदा करती ख़ला में
और खला में ही छोड़ देती
जैसे नवजात की किलकारी
दिमाग़ का बियाबान
जैसे स्मृति की बंद झोलियाँ
जैसे बनजारा ख़याल
जैसे ज्वर का नशा
नशे में जीने का प्रयास
जैसे भोग के बाद का उख़ड़ापन
दृष्यहीन नेत्र
नेत्रहीन दिमाग़ का
तिलस्मी दस्तरख़ान
दूर-दूर तक सर्पबूटियों का करिश्मा लिये
चाँद उगने की चाह का बोध
किलकारी स्मृति है बियाबान की
मृत्यु की पहचान
लोमड़ मुख पर
सुअर की मुस्कान
आदिम महान
बुज़ुर्गों के दाँत
गड़ते रहे आज तक
समन्दर की कीच में
धंसती रहीं संस्कृतियाँ
पनपते रहे सभ्यता के ऊदबिलाव
वे सब के सब उतरे थे समन्दर में
बन गये कछुए
जिनकी प्रतीक्षा कर रहा अब तक मैं
सूरज को ठेलता
इस महान तट पर
जहाँ से हट गया है समन्दर
बिखरी हैं
कछुओं की ठठरियाँ
मछलियों के पिंजर
सीपों के पहाड़
कहाँ गये आवाज़ों के नगर
काक स्वर
परिक्रमा करते छः छः घोड़ों वाले रथ
कुरुक्षेत्र
ट्रॉय के मैदान
रोमनों की काम क्रीड़ायें
यूनान के दार्शनिक घोड़े
यादवो6 की जातिहन्ता जलन
कॉपियों के ह्रासक लिंग
मैसो-वैश्याओं की रूग्ण योनियाँ
रोमन तम्बुओं के फिरंग आँधियाँ
हहराकर गिरती मीनारें
कटे वृक्षों की कतारें
ममियों की उलूक हंसियाँ
पाग़ल कुत्तों की चाल चलती राजनीति
रनवासों में घुसते छछुंदर
बुत के माथे पर घड़ा फोड़ती अफ्रोदितियां
अहम मुर्दाख़ोरों का जमाव है
सल्तनत सताएँ
मुर्दाखोरों की शह
जिन पर एक ही गिद्ध लपकता है हर बार
और यह गिद्ध है
मृत्यु मृत्यु मृत्यु
मृत्यु की पहचान मक़बरा है
मृत्यु की पहचान शायर का दिमाग़
मृत्यु की पहचान आगे से झरते स्फुल्लिंग
ईश्वर में नाचते परमाणु नहीं
और न अंतरिक्ष में
यंत्रवत भागती वेधशालाएं
मृत्यु का आगमन है
हवाओं का केकड़ों में बदलना
भूख़े नेत्रों में काला रक्त
पृथ्वी में पड़ी दरारें
बंजर ख़ेतों में बिच्छुओं की फ़सलें
फूललकड़ी के बढ़ते हुए जंगल
भावी संतानों के गलों से लिपटे
आदमख़ोर लताओं के हाथ
ख़तरनाक पहाड़ी सड़क पर
भागता ऊदबिलाव
ख़तरनाक सन्नाटा
ख़तरनाक ख़ाईयाँ
ख़तरनाक खंदकें जंगल लाँघता
आ पहुँचता उर्वर घाटी में
आर-पार पसर जाता है अँधेर उदास
पीछा करते विचार
सुरंग-दर-सुरंग
गाँवों के क्ले-मॉडल
रह जाते स्तब्ध
मैंने सुना उनचासवाँ आसन
भूल गया राजनीतिज्ञ
भूल गया मदरसेनुमा वैश्यागृह में
बीवी का दिया हिदायतनामा
भूल गया दाव-पेंच
भूल गया भाव-ताव
भूल गया चौसर की कारामद चाल
दीवार फाँदते कान
सेंध लगाते हाथ
सहारा देती हथेलियाँ
लकीरें हैं महज़ लकीरें
जबकि छत्तीस लकीरों में
पाँच और मिलाकर
जोकर समेत बावन पत्ते
चिपके हैं आदमी की पीठ पर
सजावट घर नहीं करते विद्रोह
सत्ताशून्य बनकर तोड़ते हैं लकीरें
कतारें तोड़कर वृत्त बनाती हिंसा
हर छत से टपकती है
दीवारों से रिसती है
एक जोड़ी टाँग
दो जोड़ी आँखें
चालीस अंगुलियों वाले हाथ
बँट जाते हैं
चार से पच्चीस-पचास के बीच
नासूर रिसते हैं
जिन्हें दरख़्त सहते हैं
हवा पीती है चुपचाप
दिन कोल्हू का बैल
घुमाता चक्कियों के चाक
चाक दर चाक
बजती है एक धुन
वज्रयानी पीढ़ियाँ देती हैं
बूटों की थाप
थाप हाथ की नहीं
बूट की है
धुन तम्बूरा नहीं
मशीन है धुन
और धूप-धूप नहीं रात है
दिन दिन नहीं
अपरिचय और अपरिचय के बीच
है अर्थ ढूँढने का प्रयास
जो न एकांत है
न समाधि
न समाधि डूबती आवाज़ का भ्रम
ड्रमों में कैद है कंकाल
और बेपनाह कमरों से गुज़रता है
मायावी केंकड़ा
जन्म दर का हिसाब चुकाती है
रात की अनपहचानी किताब
आदमी ममी है या बोधित्सव
आकाश पारद है या पृथ्वी का घर
दरवाज़ा खुलता है काला
और महाजनी बहियों में उगता है
देश का वटवृक्ष
पूरब में उगता सूरज
भविष्य की ओर घास के मैदान
पीढ़ियाँ पीती हैं ओक भर-भर
मटियाला जल
सीढ़ियों पर लुढ़कती है
बोतलों की ख़नक
अंधेरे में भागता हुआ ऊदबिलाव
पागल ढूँढता है नाभि का ख़ुमार
ख़ुमार आदमी की जड़ नहीं
और न बिदकी हुई औरत का गर्भ