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रात फिर नींद की दस्तक न हुई पलकों पे / निधि सक्सेना

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रात फिर नींद की दस्तक न हुई पलकों पे
जी बहलाने को खिड़की से बाहर झांका
चाँदनी पलकें झुकाये
नज़्म लिखने में मसरूफ़ दिखी
मुझ पर नज़र पड़ी
तो झट कमरे में दाख़िल हो
बिस्तर पर बेतकल्लुफ़ पसर गई

उसके पास सैंकड़ों नज़्में थी सुनाने को
मेरे पास भी नींद न आने का बहाना था
हमने रात भर नज़्मों की गठरी खोली
मखमली आबशारों में बातें भीगी

उसके हर जिक्र में चाँद का किस्सा था
उसकी हर नज़्म फ़क़त चाँद का चेहरा था

अच्छा रहा ये सुनने सुनाने का दौर
जाते हुए उसने मेरी खामोश पलकों को छुआ
उसकी छुअन में कुछ कशिश सी थी
उसकी आँखों में कुछ नमी सी थी

कहने लगी क्या चाँद का राज़ पता है तुम्हें
वो भी बहुत ज़हीन सुखनवर है
चाहत का महीन बुनकर है

सबसे छुपा कर रखता है वो नज़्में अपनी
कि जिनमे जिक्र सिर्फ तुम्हारा रहता है
उसकी खुश्क आँखे पढ़ती हूँ मैं
जिनमें हर ख़्याल तुम्हारा बसता है

जाओ सो जाओ कि वो भी पलकें मूंदे
ये रात बुझे रुका वक्त चले.