भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रात भर / मुनेश्वर ‘शमन’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आझ छत पर चाननी फिन झिलमिलइलक रात भर।
तूँ नञ अइला, मुदा तोहर इयाद अइलक रात भर।

कोय मद मातल महक आ गेल बिस्तर पर पसर।
अइसें रूठल नीन, कि ऊ फेर न अइलक रात भर।

सूतल सब अरमान के रह-रह के छेड़ऽ हइ हवा।
जगल आसा रहिया में अँखिया बिछइलक रात भर।

मदिर रस बरसल तऽ जिनगी काँच समिधा-सन जरल।
पीर सानल गीत हमर पिरीत गइलक रात भर।

अब अकेले तो सहल नञ जाहे खुसबू के जुलुम।
बुझाबऽ आके अगन, ई रितु लगइलक रात भर।