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रात है तो क्या, चले चल / अमरेन्द्र

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रात है तो क्या, चले चल,
जुगनुओं से ही मिले चल !

साथ सूरज हो हमेशा
यह भला सम्भव कहाँ है,
एक मुट्ठी रोशनी पर
ओट काजल की यहाँ है;
आदमी तो नीर मरु में
खींच लेता है अकेले,
चल रहा चलना जिसे है
बोझ दुनिया का धकेले;
रुक नहीं हरगिज कभी भी,
दो कदम ही तुम भले चल!


है बड़ी उम्मीद तुमसे
रेत पर बैठी सदी को,
फिर भगीरथ की तरह से
उठ, बुला लाओ नदी को;
भोर की तुम आस मत कर
वह तुम्हारी आस में है,
घाट है नजदीक उतना
जोर जितना प्यास में है;
मत निहारो भाग्य-रेखा,
हाथ को मत यूँ भले चल !