भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रात होते, प्रात होते / अज्ञेय
Kavita Kosh से
प्रात होते
सबल पंखों की अकेली एक मीठी चोट से
अनुगता मुझ को बना कर बावली-
जान कर मैं अनुगता हूँ-
उस बिदा के विरह के विच्छेद के तीखे निमिष में भी युता हूँ-
उड़ गया वह बावला पंछी सुनहला
कर प्रहर्षित देह की रोमावली को।
प्रात होते
वही जो थके पंखों को समेटे-
आसरे की माँग पर विश्वास की चादर लपेटे-
चंचु की उन्मुख विकलता के सहारे
नम रही ग्रीवा उठाये-
सिहरता-सा, काँपता-सा,
नीड़ की-नीड़स्थ सब कुछ की प्रतीक्षा भाँपता-सा,
निकट अपनों के-निकटतर भवितव्य की अपनी
प्रतिज्ञा के-
निकटतम इस विबुध सपनों की सखी के आ गया था-
आ गया था रात होते!
मेरठ, 21 फरवरी, 1941