रात्रि / समीर वरण नंदी / जीवनानंद दास
हाईड्रेन्ट खोलकर कोढ़ी चाट लेता है पानी
हो सकता है वह हाईड्रन्ट वहीं फँस जाए।
अब दोपहरी और रात में भीड़ किये आते हैं नगरी में।
एक मोटर कार में बैठे उल्लू की तरह खाँसकर चला गया।
लगातार पेट्रोल झरता रहता है, सतत चौकसी के बावजूद
कोई जैसे भयावह भाव से गिर गया है जल में।
तीन रिक्शे तेज़ी से गैस लैम्प में खो गये
किसी मायावी की तरह।
मैं भी फेयर लेन छोड़कर-हठवादिता से
मील दूर मील पथ चलकर-दीवार के पास
रुका, बेंन्टिक स्ट्रीट जाकर चिरेटी बाज़ार में,
चल पड़ा मूँगफली की तरह शुष्क हवा में।
मदिर रोशनी की ताप चूमती है गाल पर।
किरासन, लकड़ी, लाख घुन लगा जूट, चमड़ी की गंध
डाईनामो के गूँज के साथ मिलकर
तनी रहती धनुष की डोर।
खींचे रहता है मृत ओ जाग्रत पृथ्वी को।
ताने रखता है जीवन धनुष की डोर को।
श्लोक रटती रह गयी कब से मैत्रेयी,
राज विजय कर गयी है अमर आतिला(एक प्राचीन साध्वी स्त्री का नाम)
तब भी नितान्त अपने स्वर में ऊपर के जँगले से
गीत गाती है अधजगी यहूदी रमणी,
पितृलोक हँसता सोचता है, गीत किसे कहते हैं
और किसे कहते हैं सोना, तेल, काग़ज़ के खान।
कुछ फिरंगी युवक चले जा रहे सज-धजकर
खम्भे से लगकर एक लाल नीग्रो हँसता है
हाथ से ब्रायर पाईप साफ़ करता है-
किसी गुरिल्ला के आत्म-विश्वास से
नगरी की गहन रात, उसे लगती है
लीबिया के जंगल की तरह।
फिर भी जन्तु की तरह अति वैतालिक,
दरअसल कपड़े में शर्मिन्दा।