भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
राधे! हे प्रियतमे, प्राण-प्रतिमे / हनुमानप्रसाद पोद्दार
Kavita Kosh से
राधे, हे प्रियतमे, प्राण-प्रतिमे, हे मेरी जीवन मूल!
पलभर भी न कभी रह सकता, प्रिये मधुर! मैं तुमको भूल॥
श्वास-श्वासमें तेरी स्मृतिका नित्य पवित्र स्रोत बहता।
रोम-रोम अति पुलकित तेरा आलिङङ्गन करता रहता॥
नेत्र देखते तुझे नित्य ही, सुनते शद मधुर यह कान।
नासा अंग-सुगन्ध सूँघती, रसना अधर-सुधा-रस-पान॥
अंग-अंग शुचि पाते नित ही तेरा प्यारा अंग-स्पर्श।
नित्य नवीन प्रेम-रस बढ़ता, नित्य नवीन हृदयमें हर्ष॥