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राम बनना क्या हँसी / ज्ञानेन्द्र पाठक
Kavita Kosh से
राम बनना क्या हँसी परिहास है
राम का जीवन कठिन वनवास है
हों परिस्थितियाँ भले कितनी विकट
हमको लड़ने का सतत अभ्यास है
द्वंद के अब छन्द चारों ओर हैं
अब कहाँ मङ्गल की कोई आस है
कर्म है व्यक्तित्व से बिल्कुल अलग
हाय रे कितना विरोधाभास है
एक भौंरा लुट चुके उद्यान में
आज भी लेकर के आता प्यास है
गाँव का पनघट वो खन-खन चूड़ियाँ
शेष उनका आज बस आभास है