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राम राज / नवीन ठाकुर 'संधि'

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छेलै रामोॅ रोॅ राज पाट,
बाघें-बकरी पानी पीयै छेलै एके घाट।
मुनी महात्मा कही केॅ गेलोॅ,
लुच्चा लफंगड़ राजा भेलोॅ;
सभै के नोची-चोथी केॅ खाय छै,
चोरोॅ-बदमाशोॅ केॅ पोसै छै;
बोलभोॅ बेशी तेॅ मरबैतोॅरास्ता-बाट,
छेलै रामोॅ रोॅ राज पाट।

है कि होलै हो विधाता,
बापोॅ-बेटा आरो समाजोॅ सें टूटलै नाता;
एक दोसरा रोॅ मूं पोछैय छै,
पैसा भरी सभेॅ सटैय छै;
ठगै रोॅ लगलोॅ छै हाट
छेलै रामोॅ रोॅ राज पाट।

बदलतै जबेॅ सभै रोॅ विचार,
पनपतै फरू धरमोॅ रोॅ संसार;
जबेॅ करमोॅ-धरमोॅ रोॅ बात करतै,
तबेॅ पापोॅ रोॅ दिन-रात कटतै;
‘‘संधि’’ पढ़ै छै नीति रोॅ पाठ,
छेलै रामोॅ रोॅ राज पाट।