भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
राह चलते चुभता जो शूल / सुमित्रानंदन पंत
Kavita Kosh से
राह चलते चुभता जो शूल
वही उसके स्वभाव अनुकूल!
कामिनी की वह कुंचिक अलक
कभी था कुटिल भृकुटि, चल पलक!
खड़े जो सुंदर सौध विशाल
सुनो उनकी ईंटों का हाल,
सचिव की उँगली थे वे गोल,
शाह के रत्न शीष अनमोल!