भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रिक्तताः मैं टटोल रहा हूं अक्षयपात्र / राघवेन्द्र शुक्ल
Kavita Kosh से
जीवन के अक्षयपात्र की रिक्तता
दुर्वासा और उनके सौ शिष्यों की
उपस्थिति से भयभीत है।
प्राण की वेदना
द्रौपदी की प्रार्थना में शरणागत है,
और मैं टटोल रहा हूं अक्षयपात्र
कि तुम मिल जाओ कहीं
चावल के तिनके की तरह..