रिक्शा बाला / गौतम-तिरिया / मुचकुन्द शर्मा
लहकल आगसन वैशाखी धूप में
काजर सन कार कोलतारी सड़कपर,
लेखा रिक्सा खींच रहल हें।
गाय-गोरू भी चरना छीड़ के
छाहुर में आ गेल
चिरँय चुरमुन्नी बर पीपल पर बैठ गेल
वैशाखी सूरज चिनगारी उगल रहल हें
सड़क पर सन्नाटा पसर गेल
बुतरू सब घर में दुबकल हे
सगरो झरक चल रहल हें
लेखा ई तपिस में पसीना से लथ-पथ
छाती के बल पर भारी रिक्शा चला रहल हें।
दुर्दिन में गरीबी से संघर्ष करेले जुटल हे,
आदमी के साथ भारी सामान
लेखा लगैने हे प्राण
जीवट बला मर्द सत्तू पानी पिए हे
इहे कमाई पर पाँच परानी जिए हे।
गमछा से पसीना पोछे हे
हाँफे हे, काँपे हे,
तैयो शहर से गाँव तक के रस्ता नापे हे।
सुबह से रात तक
जाड़ा से बरसात तक
लेखा नंगे पाँव रिक्शा चलावे हे
तैयो नय भरपेट भोजन नय बढ़िया कपड़ा पावे हे।
जुआनी से बुढ़ारी तक लेखा रिक्शे चलाते रह गेल,
हाय रे जिन्दगी के क्रूर खेल।