भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रिटायरमेण्ट का गीत / जय चक्रवर्ती

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

लो भाई, लुंगी पहनने के
दिन आ गए ।

मुक्त हुए दफ़्तर के
रोज़ के झमेलों से
अफ़सर के, नेता के,
चमचों के खेलों से
नौ बजे, एक बजे,
डेढ़ बजे, पाँच बजे -
मुश्किल से छूटे हम
वक़्त की नक़ेलों से

लो भाई, दिन भर
दिन गिनने के दिन आ गए ।

जाॉगिंग और योगा तो
केवल बहाना है
सुबह-सुबह पुलिया पर
दुख-सुख बतियाना है
पीएफ़ की, पेंशन की
बच्चों के टेंशन की -
बातें सुननी सबसे
सबको सुनाना है

लो भाई, घण्टों टहलने के
दिन आ गए ।

ऐसे तो घर में हर पल
आवाजाही है
कहने की, रहने की
लेकिन मनाही है
जोड़ता - घटाता हूँ उम्र के
गुनाहों को -
मुजरिम हूँ, जज हूँ ख़ुद
ख़ुद की गवाही है

लो भाई, चुप रहकर
सुनने के दिन आ गए ।