भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रिश्तों की ज़बानें भूल गए / शिवकुटी लाल वर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रिश्तों के ज़माने भूल गए
रिश्तों की ज़बानें भूल गए,
मज़हब की उलझी डालों में
अश्कों की ज़बाने भूल गए ।

तहज़ीब की सिलवट याद रही
वो ख़ुलूस की बाहें भूल गए,
क़ुदरत की हँसी वो रुसवाई
सब गूँगे रिश्ते भूल गए ।