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रीछ का बच्चा / नज़ीर अकबराबादी

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कल राह में जाते जो मिला रीछ का बच्चा।
ले आए वही हम भी उठा रीछ का बच्चा ।
सौ नेमतें खा-खा के पला रीछ का बच्चा ।
जिस वक़्त बड़ा रीछ हुआ रीछ का बच्चा ।
जब हम भी चले, साथ चला रीछ का बच्चा ।।1।।

था हाथ में इक अपने सवा मन का जो सोटा।
लोहे की कड़ी जिस पे खड़कती थी सरापा<ref>आपादमस्तक</ref> ।
कांधे पे चढ़ा झूलना और हाथ में प्याला ।
बाज़ार में ले आए दिखाने को तमाशा ।
आगे तो हम और पीछे वह था रीछ का बच्चा ।।2।।

था रीछ के बच्चे पे वह गहना जो सरासर।
हाथों में कड़े सोने के बजते थे झमक कर।
कानों में दुर<ref>मोती</ref>, और घुँघरू पड़े पांव के अंदर।
वह डोर भी रेशम की बनाई थी जो पुरज़र<ref>जड़ाऊ</ref>।
जिस डोर से यारो था बँधा रीछ का बच्चा ।।3।।

झुमके वह झमकते थे, पड़े जिस पे करनफूल।
मुक़्क़ैश<ref>सोने-चाँदी का काम की हुई</ref> की लड़ियों की पड़ी पीठ उपर झूल।
और उनके सिवा कितने बिठाए थे जो गुलफूल।
यूं लोग गिरे पड़ते थे सर पांव की सुध भूल ।
गोया वह परी था, कि न था रीछ का बच्चा ।।4।।
                              
एक तरफ़ को थीं सैकड़ों लड़कों की पुकारें ।
एक तरफ़ को थीं, पीरों<ref>बूढ़ों</ref> जवानों की कतारें।
कुछ हाथियों की क़ीक़ और ऊंटों की डकारें ।
गुल शोर, मज़े भीड़ ठठ, अम्बोह<ref>भीड़</ref> बहारें ।
जब हमने किया लाके खड़ा रीछ का बच्चा ।।5।।

कहता था कोई हमसे, मियां आओ क़लन्दर ।
वह क्या हुए,अगले जो तुम्हारे थे वह बन्दर ।
हम उनसे यह कहते थे "यह पेशा है ‘क़लन्दर’<ref>फ़क़ीर, मदारी</ref>।
हाँ छोड़ दिया बाबा उन्हें जंगल के अन्दर।
जिस दिन से ख़ुदा ने यह दिया, रीछ का बच्चा"।।6।।
                              
मुद्दत में अब इस बच्चे को, हमने है सधाया ।
लड़ने के सिवा नाच भी इसको है सिखाया ।
यह कहके जो ढपली के तईं गत पै बजाया ।
इस ढब से उसे चौक के जमघट में नचाया ।
जो सबकी निगाहों में खपा "रीछ का बच्चा"।।7।।

                             
फिर नाच के वह राग भी गाया, तो वहाँ वाह ।
फिर कहरवा नाचा, तो हर एक बोली जुबां "वाह"।
हर चार तरफ़ सेती९ कहीं पीरो जवां "वाह"।
सब हँस के यह कहते थे "मियां वाह मियां"।
क्या तुमने दिया ख़ूब नचा रीछ का बच्चा ।।8।।
                           
इस रीछ के बच्चे में था इस नाच का ईजाद ।
करता था कोई क़ुदरते ख़ालिक़ के तईं याद ।
हर कोई यह कहता था ख़ुदा तुमको रखे शाद<ref>ख़ुश</ref>।
और कोई यह कहता था ‘अरे वाह रे उस्ताद’
"तू भी जिये और तेरा सदा रीछ का बच्चा"।।9।।
                            
जब हमने उठा हाथ, कड़ों को जो हिलाया।
ख़म ठोंक पहलवां की तरह सामने आया।
लिपटा तो यह कुश्ती का हुनर आन दिखाया।
वाँ छोटे-बड़े जितने थे उन सबको रिझाया।
इस ढब से अखाड़े में लड़ा रीछ का बच्चा ।।10।।
                       
जब कुश्ती की ठहरी तो वहीं सर को जो झाड़ा।
ललकारते ही उसने हमें आन लताड़ा।
गह हमने पछाड़ा उसे, गह उसने पछाड़ा।
एक डेढ़ पहर फिर हुआ कुश्ती का अखाड़ा।
गर हम भी न हारे, न हटा रीछ का बच्चा ।।11।।
                             
यह दाँव में पेचों में जो कुश्ती में हुई देर।
यूँ पड़ते रूपे-पैसे कि आंधी में गोया बेर।
सब नक़द हुए आके सवा लाख रूपे ढेर।
जो कहता था हर एक से इस तरह से मुँह फेर।
"यारो तो लड़ा देखो ज़रा रीछ का बच्चा"।।12।।
                             
कहता था खड़ा कोई जो कर आह अहा हा।
इसके तुम्हीं उस्ताद हो वल्लाह "अहा हा"।
यह सहर<ref>जादू</ref> किया तुमने तो नागाह<ref>अचानक</ref> "अहा हा"।
क्या कहिये ग़रज आख़िरश ऐ वाह "अहा हा"।
ऐसा तो न देखा, न सुना रीछा का बच्चा ।।13।।
                             
जिस दिन से "नज़ीर" अपने तो दिलशाद यही हैं ।
जाते हैं जिधर को उधर इरशाद<ref>आज्ञा</ref> यही हैं ।
सब कहते हैं वह साहिबे ईजाद<ref>आविष्कारक</ref> यही हैं ।
क्या देखते हो तुम खड़े उस्ताद यही हैं ।
कल चौक में था जिनका लड़ा रीछ का बच्चा ।।14।।

 

शब्दार्थ
<references/>