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रीती सागर का क्या होगा / गोपालदास "नीरज"

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माखन चोरी कर तूने कम तो कर दिया बोझ ग्वालिन का
लेकिन मेरे श्याम बता अब रीति सागर का क्या होगा?

    युग-युग चली उमर की मथनी,
    तब झलकी घट में चिकनाई,
    पीर-पीर जब साँस उठी जब
    तब जाकर मटकी भर पाई,

    एक कंकड़ी तेरे कर की
    किन्तु न जाने आ किस दिशि से
    पलक मारते लूट ले गयी
    जनम-जनम की सकल कमाई
पर है कुछ न शिकायत तुझसे, केवल इतना ही बतला डे,
मोती सब चुग गया हंस तब मानसरोवर का क्या होगा?
    माखन चोरी कर तूने...

    सजने से तो सज आती है
    मिट्टी हर घर एक रतन से,
    शोभा होती किन्तु और ही
    मटकी की टटके माखन से,

    इस द्वारे से उस द्वारे तक,
    इस पनघट से उस पनघट तक
    रीता घट है बोझ धरा पर
    निर्मित हो चाहे कंचन से,
फिर भी कुछ न मुझे दुःख अपना, चिंता यदि कुछ है तो यह है,
वंशी धुनी बजाएगा जो, उस वंशीधर का क्या होगा?
    माखन चोरी कर तूने...

    दुनिया रस की हाट सभी को
    ख़ोज यहाँ रस की क्षण-क्षण है,
    रस का ही तो भोग जनम है
    रस का हीं तो त्याग मरण है,

    और सकल धन धूल, सत्य
    तो धन है बस नवनीत ह्रदय का,
    वही नहीं यदि पास, बड़े से
    बड़ा धनी फिर तो निर्धन है,
अब न नचेगी यह गूजरिया, ले जा अपनी कुर्ती-फरिया,
रितु ही जब रसहीन हुई तो पंचरंग चूनर का क्या होगा?
    माखन चोरी कर तूने...

    देख समय हो गया पैंठ का
    पथ पर निकल पड़ी हर मटकी
    केवल मैं ही निज देहरी पर
    सहमी-सकुची, अटकी-भटकी,

    पता नहीं जब गोरस कुछ भी
    कैसे तेरे गोकुल आऊँ ?
    कैसे इतनी ग्वालनियों में
    लाज बचाऊँ अपने घट की ,
या तो इसको फिर से भर डे या इसके सौ टुकड़े कर दे,
निर्गुण जब हो गया सगुण तब इस आडम्बर का क्या होगा?
    माखन चोरी कर तूने...

    जब तक थी भरपूर मटकिया
    सौ-सौ चोर खड़े थे द्वारे,
    अनगिन चिंताएँ थी मन में
    गेह खड़े थे लाख किवाड़े

    किन्तु कट गई अब हर साँकल
    और हो गई हल हर मुश्किल,
    अब परवाह नहीं इतनी भी
    नाव लगे किस नदी किनारे,
सुख-दुःख हुए समान सभी, पर एक प्रश्न फिर भी बाक़ी है
वीतराग हो गया मनुज तो, बूढ़े ईश्वर का क्या होगा?
    माखन चोरी कर तूने...